एफएक्स विकल्प

परकीय चलन

परकीय चलन
पृथ्वीराज चौहान के बाद से हिंदू जाति तुर्कों/मुगलों के निरंतर आधीन रही। ऐसे में शिवाजी ने पहले समाज के भीतर आत्मविश्वास जगाया। उन्हें संगठित किया। छोटे-छोटे कामगारों-कृषकों मेहनतकश जातियों, जुझारू मावलों को एकत्रित किया। उनमें विजिगीषु वृत्ति भरी। उनमें यह विश्वास भरा कि आदिलशाही-कुतबशाही-मुग़लिया सल्तनत कोई आसमानी ताकत से संचालित ताक़त नहीं है। ये सत्ताएँ अपराजेय नहीं हैं। अपितु थोड़ी-सी सूझ-बूझ, रणनीतिक कौशल, साहस, सामर्थ्य और संगठन से उन्हें हराया जा सकता है। न केवल हराया जा सकता है, अपितु प्रजाजनों की इच्छा के अनुरूप एक धर्माधारित-प्रजापालक राजकीय सत्ता और राज्य भी स्थापित किया जा सकता है। उन्होंने छोटे-छोटे किलों को जीतकर पहले अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाया। और तत्पश्चात उन्होंने बड़े-बड़े किले जीतकर अपना राज्य-विस्तार तो किया ही; आदिलशाही, कुतबशाही, अफ़ज़ल खां, शाइस्ता खां, मिर्जा राजा जयसिंह आदि प्रतिपक्षियों और उनकी विशाल सेना से ज़बरदस्त मोर्चा भी लिया। कभी हारे तो बहुधा जीते। कभी संधि और समझौते किए। जब ज़रूरत पड़ी पीछे हटे, रुके, ठहरे, शक्ति संचित किया और पुनः वार किया। उन्होंने हठधर्मिता और कोरी आदर्शवादिता के स्थान पर ठोस व्यावहारिकता का पथ चुना। उनका लक्ष्य राष्ट्र और धर्म रक्षार्थ विजय केवल विजय रहा। और अंततः इसमें वे सफ़ल रहे। वे एक प्रकार से मुग़लिया सल्तनत के ताबूत की आख़िरी कील साबित हुए। परकीय चलन यदि औरंगज़ेब दक्षिण में मराठाओं से न उलझता तो मुग़लिया सल्तनत का इतनी ज़ल्दी अंत न होता। कल्पना कीजिए कि शिवाजी का नेतृत्व-कौशल, सैन्य-व्यूह और संगठन-शिल्प कितना सुदृढ़ रहा होगा कि उनके जाने के बाद भी मराठे मुगलों से अनवरत लड़ते रहे, झुके नहीं। उन्होंने न केवल कथन से अपितु अपने प्रत्यक्ष आचरण से उनमें कितना शौर्य, पराक्रम और स्वाभिमान भर दिया होगा!

The Joy of Learning

OTP Verification is mandatory to continue. Do you wish to proceed?

Congratulations! OTP verification was successful.

Rank Name Score

नाम नहीं पहचान चाहिए

कन्यादान के बाद यह माना जाता था कि इसके बाद लड़की का मायके से कोई सरोकार नहीं रह जाता और इसलिए पिता का सरनेम हटकर पति का हो जाता था। लेकिन बदलते समय के साथ हसबेंड का सरनेम लगाना महिलाओं के लिए अब कोई मजबूरी नहीं रह गया है। इसमें वे अपनी इच्छा और पसंद परकीय चलन के मुताबिक बदलाव कर रही हैं। अगर नाम के साथ हसबेंड के सरनेम का अच्छा तालमेल नहीं बैठता, तो उसे लगाने से मना भी कर देती हैं। आंकड़ों के परकीय चलन मुताबिक, 2000 से 2005 तक हर साल लगभग तीस लाख महिलाओं ने शादी के बाद अपने हसबेंड का नाम एडॉप्ट किया, जो कुल शादियों का 90 प्रतिशत था। लेकिन पिछले दो सालों में यानी 2005 से 2009 तक यह घटकर 25 लाख ही रह गया।

सिर्फ आम लड़कियां ही नहीं, कई सिलेब्रिटीज भी इसे आजादी के प्रतीक की तरह ले परकीय चलन रही हैं। आपने सुना होगा, सानिया ने अपनी शादी के बाद कहा कि वे मिर्जा बनी रहेंगी और शोएब मलिक ने भी कहा कि उन्हें इससे कोई एतराज नहीं है। एक्ट्रेस मलायका अरोड़ा खान, ऐश्वर्या राय बच्चन व गौरी परकीय चलन हितेन तेजवानी आदि में से किसी ने भी शादी के बाद अपना सरनेम नहीं हटाया। अब यह कहना भी गलत न होगा कि यह अब फैशन का रूप भी अख्तियार कर रहा है।

भारत के साहस और आशाओं का प्रतिबिंब हैं शिवाजी महाराज

निराशा और हताशा के घटाटोप अंधकार भरे परिवेश में भारतीय नभाकाश पर शिवाजी जैसे तेजोद्दीप्त सूर्य का उदय हुआ था। शिवाजी का उदय केवल एक व्यक्ति का उदय मात्र नहीं था, बल्कि वह जातियों के उत्साह और पुरुषार्थ का उदय था। गौरव और स्वाभिमान का उदय था।

सदियों की गुलामी ने हिंदू समाज के मनोबल को भीतर तक तोड़ दिया था। पराधीन तथा पराजित हिंदू समाज को मुक्ति का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और लोकरक्षक श्रीकृष्ण जैसे सार्वकालिक महानायकों का आदर्श सम्मुख होने के बावजूद वर्तमान दुरावस्था ने उन्हें हताशा और निराशा के गर्त में धकेल दिया था। बहुसंख्यक समाज के अंतर्मन में संघर्ष और विजय की कामना पलती थी परकीय चलन पर परकीय शासन की भयावहता और क्रूरता उन्हें चुप्पी साध लेने को विवश करती थी। देश में मुगलों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने के पश्चात हिंदू जनता के हृदय में गौरव, उत्साह और विजिगीषा के लिए कोई अवकाश शेष नहीं था। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, परकीय चलन देवमूर्त्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान किया जाता था। धीरे-धीरे एक ऐसा भी दौर आया जब लोगों ने अपने स्वाभिमान और स्वत्व को विस्मृत कर ‘दिल्लीश्वरो जगदीश्वरोवा” की धारणा को सत्य मानना प्रारंभ कर दिया। बड़े-बड़े गुणी और सामर्थ्यवान लोग परकीय सत्ता के गुणगान करने में अपना अहोभाग्य मानने लगे।

The Joy of Learning

By Nirali Prakashan

Book Contains

भारतीय अर्थव्यवस्था व नियोजन सामन्य अध्ययन पेपर - 4

Use eBooks save trees

भारत के साहस और आशाओं का प्रतिबिंब हैं शिवाजी महाराज

निराशा और हताशा के घटाटोप अंधकार भरे परिवेश में भारतीय नभाकाश पर शिवाजी जैसे तेजोद्दीप्त सूर्य का उदय हुआ था। शिवाजी का उदय केवल एक व्यक्ति का उदय मात्र नहीं था, बल्कि वह जातियों के उत्साह और पुरुषार्थ का उदय था। गौरव और स्वाभिमान का उदय था।

सदियों की गुलामी ने हिंदू समाज के मनोबल को भीतर तक तोड़ परकीय चलन दिया था। पराधीन तथा पराजित हिंदू समाज को मुक्ति का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम परकीय चलन और लोकरक्षक श्रीकृष्ण जैसे सार्वकालिक महानायकों का आदर्श सम्मुख होने के बावजूद वर्तमान दुरावस्था ने उन्हें हताशा और निराशा के परकीय चलन परकीय चलन गर्त में धकेल दिया था। बहुसंख्यक समाज के अंतर्मन में संघर्ष और विजय की कामना पलती थी पर परकीय शासन की भयावहता और क्रूरता उन्हें चुप्पी साध लेने को विवश करती थी। देश में मुगलों का राज्य प्रतिष्ठित हो परकीय चलन जाने के पश्चात हिंदू जनता के हृदय में गौरव, उत्साह और विजिगीषा के लिए कोई अवकाश शेष नहीं था। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्त्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान किया जाता था। धीरे-धीरे एक ऐसा भी दौर आया जब लोगों ने अपने स्वाभिमान और स्वत्व को विस्मृत कर ‘दिल्लीश्वरो जगदीश्वरोवा” की धारणा को सत्य मानना प्रारंभ कर दिया। बड़े-बड़े गुणी और सामर्थ्यवान लोग परकीय सत्ता के गुणगान करने में अपना अहोभाग्य मानने लगे।

रेटिंग: 4.42
अधिकतम अंक: 5
न्यूनतम अंक: 1
मतदाताओं की संख्या: 644
उत्तर छोड़ दें

आपका ईमेल पता प्रकाशित नहीं किया जाएगा| अपेक्षित स्थानों को रेखांकित कर दिया गया है *